एक युवक अंकित यादव का कथित बयान—“मैं आतंकवादी बनने जा रहा हूं”—सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद व्यापक बहस छिड़ गई है। हालांकि इस बयान में उसने खुद को किसी भी हिंसक रास्ते पर जाने से पहले शासन-प्रशासन का ध्यान अपने “दर्द और अन्याय” की ओर खींचने की बात कही है, लेकिन शब्दों की गंभीरता ने पूरे मामले को संवेदनशील बना दिया है।
अंकित का संदेश: ‘मैं कुछ नहीं कहूंगा, जिम्मेदार लोग मेरा दर्द सुनें’
वायरल वीडियो/पोस्ट में अंकित ने कहा:
“मैं इस पर कुछ नहीं बोलूंगा, बस चाहूंगा कि देश के प्रधानमंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री, सांसद-विधायक, जिला जज, कप्तान, जिलाधिकारी, हाई कोर्ट-सुप्रीम कोर्ट के जज, मुख्य न्यायाधीश, राज्यपाल, राष्ट्रपति—सभी लोग मेरे दर्द को सुनें और तय करें कि आम नागरिकों के लिए न्याय सस्ता और सुलभ बनाना है या अंकित यादव जैसे अन्याय से पीड़ित नौजवानों को आतंकवादी, नक्सलवादी, उग्रवादी, देशद्रोही, गुंडा, माफिया घोषित कर मरवाते रहना है?”
यह बयान स्पष्ट रूप से व्यवस्था से गहरे असंतोष और न्यायिक-प्रशासनिक तंत्र पर भरोसा टूटने की ओर इशारा करता है।
कानून-व्यवस्था और मानसिक दबाव का मामला?
विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे बयान दो संभावनाएं दिखाते हैं—
1️⃣ या तो युवक गहरे अन्याय, शोषण या व्यक्तिगत मामले से मानसिक तौर पर टूट चुका है,
2️⃣ या वह सिस्टम पर ध्यान आकर्षित करने के लिए अतिशयोक्ति भरा बयान दे रहा है।
लेकिन दोनों ही स्थितियों में यह प्रशासन के लिए गंभीर चेतावनी है।
क्यों उठ खड़े हो रहे हैं ऐसे सवाल?
हाल के वर्षों में युवाओं में बढ़ती बेरोज़गारी, धीमी न्याय प्रक्रिया, पुलिस-प्रशासनिक कार्यशैली से असंतोष, और न्याय प्राप्ति की जटिलताओं पर कई रिपोर्ट्स सामने आई हैं।
अंकित की बात इसी व्यापक बहस को फिर से तेज कर देती है—
क्या न्याय सच में आम नागरिकों के लिए सुलभ और सस्ता है?
प्रशासन को क्या करना चाहिए?
कानूनी विशेषज्ञों के मुताबिक:
ऐसे बयान पर तुरंत काउंसलिंग और सहानुभूति-आधारित संवाद आवश्यक है।
युवक के कथित “अन्याय” की जांच कर तथ्यों का पता लगाया जाना चाहिए।
प्रशासन को ऐसे मामलों में दंडात्मक दृष्टिकोण नहीं, बल्कि संवेदनशीलता अपनानी चाहिए।
सोशल मीडिया पर बड़ी प्रतिक्रिया
सोशल मीडिया पर लोग सरकार और सिस्टम से सवाल पूछ रहे हैं:
क्या युवा अपनी बात कहने के लिए इतना चरम बयान देने को मजबूर हो रहा है?
क्यों न्याय आम व्यक्ति के लिए कठिन होता जा रहा है?
क्या सरकार को ऐसे मामलों पर संज्ञान लेकर त्वरित समाधान की व्यवस्था नहीं करनी चाहिए?
अंत में बड़ा सवाल…
अंकित यादव का बयान भले ही भावनात्मक और विवादित हो, लेकिन इससे उठे सवाल बेहद महत्वपूर्ण हैं—
क्या व्यवस्था आम नागरिक के दर्द को सुन पा रही है?
या फिर असंतोष को चरम तक धकेलने वाली परिस्थितियाँ अनदेखी की जा रही हैं?

















